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रात के करीब ढाई बज रहे होंगे। नाइट शिफ्ट करने के बाद मैं पैदल ऑफ़िस से घर की और लौट रहा था। वाहन न होने के कारण बीते एक-डेढ़ साल से महानगर की सूनी बियावान और लंबी सड़कें हमसाया बनकर मेरे साथ चलती हैं। बाप रे! इतनी लंबी-लंबी और भूतिया सड़कें। खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं। बस, चलती रहती हैं, चलती रहती हैं। रुकने का नाम ही नहीं लेतीं। कहीं ऐसा घनघोर अंधेरा कि पैर कहां पड़ रहे हैं पता ही न चले, तो कहीं खंभों की लाइट से फूटते सफेद झिलमिलाते प्रकाश में नहाती सड़कों की खूबसूरती देखते ही बनती है। रोज़ाना का रूटीन होने के कारण अब इन सूनी और अंधेरी सड़कों से डर नहीं लगता! इन्हीं सूने और बियावान रास्तों पर दिन भर इतना हैवी ट्रैफिक और चहल-पहल रहती है कि एक कदम पैदल चलना भी दूभर हो जाए।

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